
भारत- तिब्बत सम्बन्ध
भारत ने हमेशा से वसुधैव कुटुम्बकम की निति का पालन करते हुए सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार माना है | भारत हमेशा से विश्व में शांतिदूत की भूमिका निभाता रहा है जिसका प्रमाण हमें इतिहास से लेकर वर्तमान तक मिलता है | भारतीय विदेश निति ने निर्मातो इस बात का विशेष ध्यान रखा तथा साथ ही साथ पड़ोसी देशो के साथ मधुर सम्बन्ध बनाये रखने की पंचशील की निति पालन किया | भारत की विदेश नीति में पड़ोसी देशों से संबंध प्राथमिकता में शामिल हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर प्रथम पड़ोस नीति के तहत अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, नेपाल, मालदीव, म्यांमार, पाकिस्तान, श्रीलंका के साथ हमारे संबंधो की सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी है | इन देशो में पाकिस्तान के अपवाद को छोड़कर अन्य के साथ भारत निकटता से काम कर रहा है | पाकिस्तान के साथ सम्बन्ध पूर्व विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला का कहना है कि भारत- पाकिस्तान के साथ अच्छे सम्बन्ध की इच्छा रखता है लेकिन यह की सुरक्षा की कीमत पर नहीं हो सकती है | चीन के साथ सम्बन्धो को लेकर पूर्व विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला ने स्पष्ट कर दिया कि सीमावर्ती क्षेत्रों में शांति एवं स्थिरता हमारे सम्बन्धो के विकास के लिए जरुरी है |
तिब्बत सदियों से प्राचीन संस्कृति और आध्यात्मिकता का एक जीवित केंद्र रहा है जो अध्यात्मिक संपदा और दर्शन के मामले में दुनियां को बहुत योगदान दिया है | चूंकि भारतीय उपमहाद्वीप के कुछ हिस्सों पर आक्रमण किया जा रहा था और बर्बर हमलावरों द्वारा हिंदू सभ्यता को मिटा दिया गया था, कई साधकों, गुरुओं और आध्यात्मिक गुरुओं ने तिब्बत की सुरक्षा और एकांत में शरण ली, जिससे हिंदू और बौद्ध विचार और साहित्य को जीवित और फलने-फूलने का मौका मिला। इस प्रकार, तिब्बत भारतीयों के लिए अत्यधिक महत्व रखता है क्योंकि यह लचीलापन और अस्तित्व को दर्शाता है।
भारत- तिब्बत सम्बन्ध बहुत प्राचीन है इसे हम ऐतिहासिक परिपेक्ष में देख सकते है | महाभारत और कालिदास के रघुवंश महाकाव्य में तिब्बत का उल्लेख त्रिविष्टप नाम से मिलता है, लेकिन इसके साथ भारत का संपर्क वस्तुतः बौध्द धर्म के माध्यम से ही हुआ | भारत प्राचीन काल से अपनी संस्कृति, धर्म, शाशन संचालन प्रक्रिया और शिक्षा के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त कर चुका था | प्राचीन भारत में नालंदा और विक्रमशिला दो विश्व प्रसिध्द विश्वविद्यालय थे जहाँ विश्व के विभिन्न भागो से विद्वान और छात्र आते थे | तिब्बती विद्वान तारानाथ ने इसका विस्तृत वर्णन किया है | यहाँ के शिक्षक और विद्वान तिब्बत में इतने प्रसिध्द थे की कहा जाता है एक बार तिब्बत के राजा ने इस विश्वविद्यालय के प्रधान की तिब्बत में आमंत्रित करने के लिए दूत भेजे थे ताकि स्वदेशी ज्ञान और जन- सामान्य की संस्कृति में रूचि जगाई जा सके | बिहार में एक अन्य प्रसिध्द विश्वविद्यालय था- ओदंतपुरी | पालवंश के राजाओं के संरक्षण में इसकी प्रतिष्टा बढ़ी | इस विश्वविद्यालय से बहुत सरे बौध्द भिक्षु तिब्बत में जाकर बस गये थे |
शुरुआत में भारत- तिब्बत सम्बन्ध का उल्लेख बौध्द साहित्य से मिलता है जिसमे भारत के विश्वविद्यालयो और उनके विद्वानों का अहम योगदान रहा | नालंदा विश्वविद्यालय के आचार्य कमलशील को तिब्बत के राजा ने निमंत्रित किया था | उनकी मृत्यु के बाद उनके शरीर पर विशेष लेप लगाकर उसे ल्हासा के विहार में सुरक्षित रखा गया था | ज्ञानभद्र, एक अन्य प्रकांड विद्वान थे जो अपने दोनों बेटों के साथ धर्मं प्रचार के लिए तिब्बत गये | बिहार के ओदन्तपुरी विश्वविद्यालय के समान तिब्बत में एक नये बौध्द बिहार की स्थापना की गई है | आचार्य अतीश विक्रमशिला विश्वविद्यालय के प्रधान थे जिन्हें दीपंकर श्रीज्ञान के नाम से भी जाना जाता था | वे ग्यारहवीं शताब्दी में तिब्बत गये और वहां बौध्द धर्मं की सशक्त नींव डाली | थोनामी संभोता एक तिब्बती मंत्री था जो चीनी यात्री ह्वेनसांग के नालंदा आगमन के समय नालंदा विश्वविद्यालय का छात्र था | यहाँ से अध्ययन के बाद वह तिब्बत लौटा और वहां उसने बौध्द धर्म का प्रचार- प्रसार किया | तिब्बतियों की बड़ी संख्या ने बौध्द धर्म को स्वीकार किया यहाँ तक कि तिब्बत का राजा भी बौध्द बन गया था | उसने बौध्द धर्म को राजधर्म घोषित किया था | तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रसार तिब्बती राजा, सोंगत्सेन गम्पो और ठिसोंग-देत्सेन के प्रयासों से हुआ तथा उनके नाम तिब्बती इतिहास के सुनहरे पन्नों में दर्ज हो गए हैं।
जब भारत ब्रिटेन के अधीन था उस समय ब्रिटिश सरकार ने तिब्बत के साथ अपने सम्बन्ध स्थापित करने की ओर अग्रसर हुई | जुलाई १९०४ में एक युवा ब्रिटिश कर्नल फ्रांसिस युनुगसबैंड ने ल्हासा के पवित्र शहर में प्रवेश किया और तिब्बतियों पर शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य के साथ अपना पहला समझौता किया | क्राउन प्रतिनिधि के साथ इस संधि पर हस्ताक्षर करके, तिब्बत को लन्दन द्वारा एक अलग राष्ट्र के रूप में स्वीकार किया गया था| मार्च १९१४ में, चीन के प्रति निष्पक्षता दिखाए के लिए लन्दन ने इस मुद्दे को निपटाने के लिए शिमला में एक त्रिपक्षीय सम्मलेन का आह्वान किया; इस सम्मलेन में पहली तीन मुख्य नायक वार्ता के लिए एक साथ एक मंच पर आये | इस मीटिंग का परिणाम पूरी तरह से संतोषजनक नहीं था क्योकि चीनियों ने केवल मुख्य दस्तावेज़ को प्रारंभ किया और इसकी पुष्टि नहीं की | ब्रिटिश और तिब्बती हालांकि एक आम सीमा पर सहमत हुए जिसे उन्होंने मानचित्र पर सीमांकित किया जिसे मैकमोहन रेखा के नाम से जाना जाता है | यह संधि तब भी लागु थी जब भारत अगस्त १९४७ में स्वतंत्र हुआ था | स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार का तिब्बती सरकार के विदेश कार्यालय से शिमला कन्वेंशन की पुष्टि करने का अनुरोध किया | भरत सरकार के इस औपचारिक अनुरोध को तिब्बत के विदेश कार्यालय स्वीकार कर लिया जो तिब्बत की स्वतंत्र स्थिति का सबसे अच्छा प्रमाण है |
When India became independent of the British in 1947, the Government of India sent the following note recognizing the Tibetan government: “The Government of India would be glad to have an assurance that it is the intention of the Tibetan government to continue relations on the existing basis until new arrangements are reached that either party may wish to take up. This is the procedure adopted by all other countries with which India has inherited treaty relations from His Majesty’s Government”.
अक्टूबर 1950 में, एक घटना ने हिमालयी क्षेत्र के साथ-साथ भारत और चीन के संबंधों के भाग्य को बदल दिया: माओ की सेना ने पूर्वी तिब्बत में मार्च किया। चीन ने इस इलाके पर अपना झंडा लहराने के लिए हज़ारों की संख्या में सैनिक भेज दिए. तिब्बत के कुछ इलाकों को स्वायत्तशासी क्षेत्र में बदल दिया गया और बाक़ी इलाकों को इससे लगने वाले चीनी प्रांतों में मिला दिया गया. लेकिन साल 1959 में चीन के ख़िलाफ़ हुए एक नाकाम विद्रोह के बाद 14वें दलाई लामा को तिब्बत छोड़कर भारत में शरण लेनी पड़ी जहां उन्होंने निर्वासित सरकार का गठन किया. साठ और सत्तर के दशक में चीन की सांस्कृतिक क्रांति के दौरान तिब्बत के ज़्यादातर बौद्ध विहारों को नष्ट कर दिया गया. माना जाता है कि दमन और सैनिक शासन के दौरान हज़ारों तिब्बतियों की जाने गई थीं.
The Chinese again invaded Tibet in 1949. India’s foreign office responded to the violation (of 821-treaty) on October 26, 1950 as: “In the context of world events, invasion by Chinese troops of Tibet cannot but be regarded as deplorable and in the considered judgment of the Government of India, not in the interest of China or peace”
तिब्बत पर कब्ज़ा करने के बाद चीन ने उसे बाहरी दुनिया से एकदम अलग-थलग कर दिया तथा तिब्बत में चीनी सेना तैनात कर दिया और राजनितिक शासन में अपना दखल बढ़ा दिया जिसकी वजह से तिब्बत के नेता दलाई लामा को भागकर भारत में शरण लेनी पड़ी | फिर तिब्बत का चीनीकरण शुरू हुआ और तिब्बत की भाषा, संस्कृति, धर्म और परम्परा सबको निशाना बनाया गया. किसी बाहरी व्यक्ति को तिब्बत और उसकी राजधानी ल्हासा जाने की अनुमति नहीं थी, इसीलिये उसे प्रतिबन्धित शहर कहा जाता है. विदेशी लोगों के तिब्बत आने पर ये पाबंदी 1963 में लगाई गई थी. हालांकि 1971 में तिब्बत के दरवाज़े विदेशी लोगों के लिए खोल दिए गए थे.
तिब्बत और भारत- चीन सम्बन्ध
1959 में तिब्बत में ल्हासा विद्रोह ने चीनी राज्य द्वारा बड़े पैमाने पर दमन को आमंत्रित किया जिसमें तिब्बत के राजनीतिक-आध्यात्मिक नेता दलाई लामा ने हजारों शरणार्थियों के साथ सीमा पार की और भारत में हिमाचल प्रदेश में बस गए। भारत धार्मिक और ऐतिहासिक कारणों से तिब्बती बौद्ध अल्पसंख्यकों के प्रति सहानुभूति रखता था। औपनिवेशिक वर्षों के दौरान, तिब्बत चीन का अभिन्न अंग नहीं था और ब्रिटिशों ने इसे यात्रा और व्यापार के अधिकार के साथ औपनिवेशिक भारत और चीन के बीच एक बफर राज्य के रूप में बनाए रखा। इसलिए, भारत ने तिब्बत पर ऐतिहासिक अधिकार का दावा किया जिसे चीन ने अस्वीकार कर दिया। 1950 के दशक के उत्तरार्ध में चल रहा तनाव 1962 में भारत-चीन युद्ध के रूप में समाप्त हुआ, जिसकी स्मृति आज भी भारत की विदेश नीति के निर्माताओं पर भारी पड़ती है। भारत ने इसे अपने प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा दिए गए भरोसे, समर्थन और दोस्ती के विश्वासघात के रूप में लिया। एक आदर्शवादी के रूप में, नेहरू ने तिब्बत पर भारत के दावे को इस उम्मीद के साथ त्याग दिया था कि एशिया के दो धुरी (चीन और भारत) की एकता से एशिया में स्थिरता और समृद्धि आएगी। 1962 के चीन के साथ युद्ध में भारत की पराजय ने भारतीय राज्य की कमजोरी को उजागर कर दिया। फलते-फूलते व्यापार और आर्थिक संबंधों के बावजूद चीन तब से भारत के प्रति शत्रुतापूर्ण देश बना हुआ है।
तिब्बत पर भारत की नीति
1947 से लेकर वर्तमान समय तक भारत की तिब्बत-विषयक नीति को निम्नलिखित विभिन्न चरणों में समझा जा सकता है –
1947-51 तक: विश्व के अधिकांश देश तिब्बत पर चीन के संभावित आक्रमण का विरोध कर रहे थे और भारत भी इसके विरुद्ध था. भारत ने बीजिंग पर दबाव डाला कि वह तिब्बत में सेना न भेजे.
1954-50 तक: भारत ने तिब्बत को पर्याप्त स्वायत्तता प्रदान करने और तिब्बत में अपनी सैन्य उपस्थिति को कम करने के लिए बीजिंग को सहमत करने का प्रयास किया.
1962-77 तक: भारत-चीन युद्ध के दौरान भारत ने तिब्बती विरोध का समर्थन किया और तिब्बत में उपस्थित चीन पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव बढ़ाया. भारत ने 1963 में तिब्बत के लिए नए संविधान की घोषणा करने से दलाई लामा को नहीं रोका.
1986-1999 तक: 1988 में भारत ने चीन के क्षेत्र के भाग के रूप में तिब्बती स्वायत्त क्षेत्र को मान्यता प्रदान की और दोहराया कि वह तिब्बतियों को भारत में चीनी विरोधी राजनितिक गतिविधियों में शामिल होने की अनुमति प्रदान नहीं करता है.
वर्ष 2003 में : भारतीय प्रधानमन्त्री चीन की यात्रा पर गये और वहाँ यह वक्तव्य दे डाला कि 1950 में चीन ने तिब्बत पर हमला नहीं किया था. भारत का यह कथन सत्य के विपरीत था क्योंकि आक्रमण के बाद ही दलाई लामा को तिब्बत से पलायन करना पड़ा था. मैकमोहन लाइन के विषय में भारत की नीति तथा अरुणाचल प्रदेश में चीन के द्वारा कब्ज़ा किये गये भूभाग के बारे में भारत के दृष्टिकोण को देखते हुए यह कथन अनुचित था. तत्कालीन भारतीय नेतृत्व ने यह तथ्य भुला दिया था कि तिब्बत ने 1914 के शिमला समझौते में स्वतंत्र रूप से भाग लिया था. इन सबके बावजूद चीन भारत के प्रति कभी उदार नहीं हुआ है और वह आज भी सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश को दक्षिण तिब्बत का एक भाग मानता है.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तिब्बत पालिसी
जैसा की भारत की नीति रही है पड़ोसी देशो के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाये रखने की | उसी निति का अनुसरण करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2014 में अपने शपथ ग्रहण समारोह में निर्वासित सरकार सिक्योंग के पीएम लोबसोंग सांगे को आमंत्रित किया।
2016 में भारत सरकार ने दुनिया भर के उइगर मुस्लिम और तिब्बती नेताओं के साथ चीनी असंतुष्टों के एक सम्मेलन की अनुमति दी। (लेकिन अंतिम समय में उनके वीजा रद्द कर दिए गए थे) |
२०१८ में दलाई लामा की भारत में शरणार्थी के रूप में आने के 60वें वर्ष को चिह्नित करके कार्यक्रमों की योजना बनाई गई थी। (ध्यान दें: अधिकारियों को इसमें भाग लेने की अनुमति नहीं थी और दलाई लामा की राजघाट की एक योजनाबद्ध यात्रा रद्द कर दी गई थी।)
2020 में भाजपा नेता राम माधव सार्वजनिक रूप से तिब्बती विशेष सीमा बल के एक सैनिक के अंतिम संस्कार में शामिल हुए। (नोट: बाद में उन्होंने अंतिम संस्कार के बारे में अपना ट्वीट हटा दिया) |
२०२१ में भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दलाई लामा को पहली सार्वजनिक उनके जन्मदिन पर बधाई दिये | अपने ट्विटर संदेश में मोदी ने लिखा, ‘परम पावन दलाई लामा को 86वें जन्मदिन पर बधाई देने के लिए फ़ोन पर बात की. हम उनके लंबे और स्वस्थ जीवन की कामना करते हैं.’ यह पहली बार था, जब प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से दलाई लामा को उनके जन्मदिन पर बधाई दे रहे थे (नोट: विदेश मंत्रालय ने इस सप्ताह स्पष्ट किया कि दलाई लामा एक सम्मानित धार्मिक हैं और पीएम उनसे सम्मानित अतिथि के रूप में व्यवहार करने की भारत की निरंतर नीति का हिस्सा थे।)
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