महाकुंभ 2025 को अनदेखा करने वाली ग्लोबल मीडिया ने हादसे के बाद हिंदू धर्म और भारत को निशाना बनाया – शर्मनाक!

यह वाकई शर्म की बात है कि ग्लोबल मीडिया, जिसने कभी महाकुंभ 2025 पर एक भी खबर नहीं चलाई, वह अचानक एक हादसे के बाद इसे कवर करने लगी—वो भी हिंदू धर्म और भारत को बदनाम करने के लिए।

जब लाखों श्रद्धालु आस्था और अनुशासन के साथ महाकुंभ में शामिल हो रहे थे, तब इन मीडिया हाउस ने कभी यह नहीं दिखाया:
✅ कैसे इतने बड़े आयोजन को शांतिपूर्वक और भव्य रूप से संचालित किया जा रहा था?
✅ कैसे बेहतर प्रबंधन, स्वच्छता और सुरक्षा के इंतज़ाम किए गए?
✅ इस आयोजन की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महानता क्या है?

लेकिन जैसे ही एक हादसा हुआ, ये सब अचानक जाग गए—तथ्य दिखाने के लिए नहीं, बल्कि हिंदू धर्म और भारत की छवि खराब करने के लिए!

🔹 जब करोड़ों लोग शांतिपूर्वक इस आयोजन में शामिल हो रहे थे, तब ये चुप क्यों थे?
🔹 हिंदू धर्म और भारत को निशाना बनाने की उनकी यह दोहरी नीति कब तक चलेगी?
🔹 क्या भारत की संस्कृति और आस्था को सिर्फ तब दिखाया जाएगा, जब उसे बदनाम करना हो?

महाकुंभ सिर्फ एक आयोजन नहीं, यह भारत की महान विरासत और एकता का प्रतीक है। यह सदियों से चला आ रहा है और आगे भी चलता रहेगा, चाहे कोई इसे पसंद करे या नहीं।

जो मीडिया आस्था को अनदेखा कर सिर्फ कमियों को दिखाने में रुचि रखती है, उसकी सच्चाई अब सबको पता है।

“क्या हादसे सिर्फ भारत में ही होते हैं? हज और ईसाई आयोजनों में भगदड़ क्यों नहीं दिखाते?”

जब महाकुंभ जैसे विशाल धार्मिक आयोजन में कोई दुर्घटना होती है, तो ग्लोबल मीडिया और कुछ खास लोग हिंदू धर्म और भारत पर सवाल उठाने लगते हैं। लेकिन क्या दुनिया के बाकी बड़े धार्मिक आयोजनों में हादसे नहीं होते?

👉 हज के दौरान भगदड़ – कई बार सऊदी अरब में हज यात्रा के दौरान हजारों लोगों की मौत हुई है। 2015 में मिना में भगदड़ में 2,000 से ज्यादा लोग मारे गए थे।
👉 ईसाई आयोजनों में दुर्घटनाएं – फिलीपींस और ब्राजील जैसे देशों में बड़े धार्मिक कार्यक्रमों के दौरान भगदड़ और हादसे हुए हैं।
👉 अन्य देशों में हादसे – चीन, दक्षिण कोरिया और अफ्रीकी देशों में भी भीड़ नियंत्रण में चूक के कारण कई बड़ी दुर्घटनाएं हुई हैं।

तो फिर सवाल उठता है – महाकुंभ या अन्य हिंदू आयोजनों पर ही इतना शोर क्यों मचता है?
🔹 क्या मीडिया को हज और अन्य धार्मिक आयोजनों की घटनाएं याद नहीं रहतीं?
🔹 क्या सिर्फ हिंदू धर्म और भारत को बदनाम करने के लिए ये नकारात्मक खबरें चलाई जाती हैं?

हर बड़े आयोजन में हादसे हो सकते हैं, लेकिन हिंदू धर्म को निशाना बनाना और भारत की छवि खराब करना एक सोची-समझी चाल लगती है।

The First Digital MahaKumbh: A Blend of Tradition and Technology

The Kumbh Mela is one of India’s largest religious gatherings, celebrated for centuries. However, the 2025 Kumbh Mela stood out as the first-ever Digital Kumbh, where modern technology and tradition came together in extraordinary ways. This article explores the highlights, positives, and challenges of this unique event.

What Changed in the Digital Kumbh?

1. AI and Virtual Reality:

AI recreated historical figures like Mahatma Gandhi and Atal Bihari Vajpayee taking a holy dip, making it one of the most talked-about moments. Similarly, cricketers and Bollywood stars were digitally portrayed as saints in saffron robes, blending faith with creativity.

2. Social Media Buzz:

• Instagram Reels and Live Streams: Millions shared moments from the Kumbh through reels and videos, making it a viral event globally.
• Virtual Participation: People from across the world participated in the Kumbh through virtual reality and live-streaming platforms.

3. Drone Shows and Crowd Management:
Drones showcased cultural and spiritual themes through spectacular light shows. They also helped with crowd management, ensuring safety in such a massive gathering.

4. Apps and Portals:
Mobile apps like the “Kumbh Mela App” helped visitors with registration, traffic updates, and emergency services, simplifying the experience for devotees.

Positives of the Digital Kumbh:

1. Global Reach:

The use of technology allowed the Kumbh to reach every corner of the world. People who couldn’t attend physically experienced the event virtually.

2. Youth Engagement:
Social media made the Kumbh attractive to younger generations, many of whom showed newfound interest in such traditional events.

3. Boost to Tourism:
The digital promotion helped showcase Uttar Pradesh and India’s culture, significantly boosting tourism.

4. Improved Safety:
With drones and AI managing crowds and emergencies, the event was safer than ever before.

Challenges and Criticisms:

1. Spirituality or a Spectacle?
Many felt that using AI to show historical figures and celebrities in religious roles made the Kumbh feel more like a spectacle than a spiritual gathering.

2. Too Much Dependence on Technology:
Villagers and elderly devotees who lacked access to smartphones or the internet struggled to navigate the digital-first approach.

3. Environmental Concerns:
The increased use of drones and tech tools raised concerns about e-waste and energy consumption.

4. Misrepresentation of Traditions:
Portraying cricketers and Bollywood stars as saints upset traditionalists, who felt it mocked the sacredness of the event.

Lessons for the Future:

• Balance Tradition and Technology: The event should highlight spirituality while using technology wisely.
• Simplify Digital Tools: Make apps and tech features easier for rural and less tech-savvy people.
• Eco-Friendly Technology: Use sustainable tech to reduce environmental impact.

The first Digital Kumbh was a historic experiment, merging India’s rich traditions with modern technology. While it attracted global attention and engaged the youth, it also sparked debates about preserving the spiritual essence of such events.

“The Digital Kumbh showed how technology can bring India’s traditions to the world while also reminding us to stay rooted in our spiritual values.”

ड्रेसिंग रूम की खबरें: देश से ऊपर खुद के हित?

क्रिकेट, जिसे भारत में धर्म की तरह माना जाता है, हमेशा खिलाड़ियों की प्रतिबद्धता और टीम भावना का प्रतीक रहा है। लेकिन हाल के दिनों में, ड्रेसिंग रूम की निजी बातें सार्वजनिक हो रही हैं, जिससे यह सवाल खड़ा होता है कि क्या कुछ खिलाड़ी देश से ज्यादा अपने निजी हितों को तरजीह दे रहे हैं।यही ६ महीने से पहले इसी ड्रेसिंग रूम में वर्ल्ड कप विजेताओं के साथ जश्न में डूबा था जिसे देखकर हर भारतीय गर्व महसूस कर रहे थे,वहीं २०२३ वर्ल्ड कप में मैच के बाद बेस्ट फ़ील्डर अवार्ड दिया जाता था वो दृश्य हम सबने  देखा की कैसे सभी खिलाड़ी एक दूसरे के मस्ती करते हुए देखे जा सकते थे जिसे हम सब मैच के बाद वो चीज़ का बेसब्री से इंतज़ार करते थे की कब वो विज़ुअल आए । अब ड्रेसिंग रूम लीक के नाम से ख़बरों में है जोकि दुर्भाग्यपूर्ण है ।

खुद के ब्रांड का दबदबा या मार्केट प्रेशर :

आजकल खिलाड़ी न सिर्फ अपने खेल के लिए बल्कि अपने ब्रांड, सोशल मीडिया छवि और पीआर मैनेजमेंट के लिए भी जाने जाते हैं। ऐसे में, ड्रेसिंग रूम की बातें लीक करना एक ट्रेंड बन गया है। यह कदम न केवल टीम के भीतर भरोसे को तोड़ता है बल्कि टीम की एकजुटता पर भी गहरा असर डालता है।

देश की प्रतिष्ठा से खेलना:

ड्रेसिंग रूम का माहौल हमेशा से टीम की ताकत और कमजोरी का केंद्र होता है। जब खिलाड़ी खुद को टीम से ऊपर रखते हैं, तो इसका असर न केवल प्रदर्शन पर पड़ता है बल्कि देश की प्रतिष्ठा को भी चोट पहुंचती है। यह साफ दिखाता है कि कुछ खिलाड़ियों के लिए देश से ज्यादा उनकी छवि और ब्रांड मायने रखते हैं।
समस्या की जड़
  • पीआर और कॉर्पोरेट दबाव: कई खिलाड़ी अपने करियर के साथ ब्रांड एंडोर्समेंट्स और पीआर स्ट्रैटेजी पर ध्यान देते हैं।
  • इगो क्लैश: व्यक्तिगत उपलब्धियों को लेकर खिलाड़ियों के बीच अक्सर टकराव होता है।
  • मीडिया का हस्तक्षेप: मीडिया भी ऐसी खबरों को मसालेदार बनाकर पेश करता है, जिससे विवाद और बढ़ता है।

आगे का रास्ता

टीम प्रबंधन और बोर्ड को यह सुनिश्चित करना होगा कि ड्रेसिंग रूम की बातें अंदर ही रहें। खिलाड़ियों को यह समझना होगा कि वे देश का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, न कि सिर्फ अपनी निजी पहचान को। साथ ही, अनुशासन और एकजुटता को प्राथमिकता देना जरूरी है।
क्रिकेट केवल एक खेल नहीं, बल्कि देश की भावना का प्रतीक है। खिलाड़ियों को यह समझना चाहिए कि वे देश के लिए खेल रहे हैं, न कि सिर्फ अपने लिए। ड्रेसिंग रूम की खबरें बाहर लाना न सिर्फ टीम को कमजोर करता है, बल्कि मेरे जैसे करोड़ों प्रशंसकों के विश्वास को भी तोड़ता है।

छठ महापर्व: एक समर्पण, आस्था और एकता का प्रतीक

छठ महापर्व केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति में गहरी आस्था, संकल्प और पवित्रता का प्रतीक है। छठ पूजा में ऐसी एकता और समर्पण की भावना निहित है कि हर वर्ग, हर समुदाय इसे बिना किसी भेदभाव के पूरी श्रद्धा से मनाता है। इस पर्व में न कोई ऊँच-नीच है, न कोई जाति-पाति। यह महापर्व समाज के हर व्यक्ति को, चाहे वह किसी भी वर्ग से आता हो, एक समान अवसर देता है कि वह सूर्य और छठी मैया की पूजा कर अपने जीवन में सुख, समृद्धि और शांति की कामना करे। छठ पूजा में छठ घाट पर कोई भी प्रसाद मांगने वाले से जाति का विवरण नहीं पूछता है अपितु बेझिझक प्रसाद का आदान-प्रदान किया जाता है।

छठ महापूजा की सबसे अद्भुत बात यह है कि इसमें कोई विशेष पंडित या बाहरी आयोजन की आवश्यकता नहीं होती। साधारण से साधारण व्यक्ति भी नदी के किनारे या अपने घर के आँगन में इस पूजा को पूरी श्रद्धा और पवित्रता के साथ कर सकता है। यह पूजा चार दिनों का कठिन व्रत है, जिसमें आस्था और संकल्प का अद्भुत संगम देखने को मिलता है।

शारदा सिन्हा की आवाज़ और छठ महापर्व का अनमोल संगम

छठ के अवसर पर जो अद्वितीय वातावरण होता है, वह शारदा सिन्हा जी के गीतों के बिना अधूरा है। शारदा सिन्हा की आवाज़ ने छठ पूजा को सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में पहचान दिलाई है। उनके गाए हुए छठ के गीतों में आस्था और ममता का ऐसा भाव झलकता है कि हर सुनने वाला अपने आप को छठ की पावन परंपरा का हिस्सा महसूस करता है। चाहे वह “केलवा के पात पर” हो या “पहिले पहिल हम” जैसे गीत, शारदा सिन्हा की आवाज़ ने छठ महापर्व को घर-घर पहुँचाया है।

उनके गीतों में ग्रामीण लोकजीवन की झलक और छठ पर्व के प्रति श्रद्धा की गहराई सुनने वालों को भावविभोर कर देती है। इस पर्व के गीतों के माध्यम से वे न केवल एक परंपरा को आगे बढ़ा रही हैं, बल्कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक छठ की गूंज को अनवरत जारी रख रही हैं। आज जब शारदा सिन्हा जी स्वास्थ्य संकट से जूझ रही हैं, तो उनके गीतों की मिठास और उनके योगदान को याद करना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।

छठ पूजा: आध्यात्मिकता और सामाजिक एकता का संदेश

छठ महापर्व हमें यह सिखाता है कि भक्ति का मार्ग हर व्यक्ति के लिए समान है। इसमें न कोई विशेष आचार संहिता है, न कोई दिखावा, केवल एक सच्चा संकल्प और श्रद्धा से युक्त मन की आवश्यकता होती है। छठ पूजा में सामूहिकता और एकता का अद्भुत प्रदर्शन होता है, जहाँ समाज का हर वर्ग मिलकर एक ही आस्था के साथ सूर्य देव और छठी मैया की उपासना करता है। इस पर्व के दौरान हर घाट और हर घर एक मंदिर बन जाता है, जहाँ एक जैसी प्रार्थना की जाती है।

इस महाव्रत की खूबसूरती इस बात में भी है कि इसमें किसी प्रकार की दिखावे वाली पूजा-अर्चना की आवश्यकता नहीं होती। लोग अपने सादगीपूर्ण भक्ति से छठी मैया के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करते हैं। इसके माध्यम से यह पर्व न केवल आध्यात्मिक रूप से बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी हमें एकता और समानता का संदेश देता है।

इस छठ पर्व पर हम सबकी यही कामना है कि छठी मैया और सूर्य देव सभी के जीवन में सुख, शांति और समृद्धि लेकर आएं और शारदा सिन्हा जी को स्वस्थ कर हमें फिर से अपनी मधुर आवाज़ का आशीर्वाद दें, ताकि आने वाले छठ पर्वों में उनकी गूंज फिर से हमारे दिलों तक पहुँचे।

छठ पूजा न केवल आस्था और श्रद्धा का पर्व है, बल्कि यह प्रकृति के प्रति सम्मान और सामुदायिक एकता का अद्भुत उदाहरण है। यह पर्व सूर्य देवता और छठी मैया की उपासना का प्रतीक है, जो हमें सिखाता है कि प्रकृति के साथ सामंजस्य कैसे बनाए रखा जाए। जल, सूर्य और धरती का संतुलन इस महापूजा के केंद्र में होता है, जहाँ प्रकृति के इन तीन तत्वों की पूजा की जाती है। छठ पूजा में जिस पवित्रता और सादगी के साथ व्रत, अर्घ्य और प्रसाद की परंपरा निभाई जाती है, वह जीवन में संतुलन और संयम का संदेश देती है।

इस महापर्व का एक और विशेष पहलू है—यह पूरी तरह से भेदभाव रहित है। छठ पूजा में समाज के हर वर्ग के लोग, चाहे वे किसी भी जाति, धर्म, या वर्ग से हों, मिल-जुलकर इसे मनाते हैं। इस पूजा में न कोई ऊंच-नीच का भेदभाव होता है और न ही किसी प्रकार की विशेष आचार-संहिता। हर कोई अपने स्तर पर, अपनी क्षमता के अनुसार इस पूजा में शामिल होता है। यही छठ पूजा का सौंदर्य है कि यह पर्व एकता का प्रतीक बनकर सभी को जोड़ता है।

प्रसाद में सुथनी का विशेष महत्व

छठ पूजा के प्रसाद में सुथनी का विशेष महत्व है। सुथनी एक प्रकार की जड़ वाली सब्जी है, जो पारंपरिक रूप से छठ पूजा में प्रसाद के रूप में अर्पित की जाती है। इसे पूजा में शामिल करने के पीछे गहरा प्रतीकात्मक अर्थ है। सुथनी धरती की उपज है, और इसका प्रसाद के रूप में प्रयोग प्रकृति से हमारे संबंध को दर्शाता है। जिस तरह सुथनी मिट्टी में पनपती है, उसी तरह छठ पर्व हमें हमारी जड़ों से जोड़े रखने का काम करता है।

सुथनी, नारियल, ठेकुआ, कसार जैसे प्रसाद केवल खाने की वस्तुएँ नहीं हैं, बल्कि छठ पूजा की पवित्रता, सादगी और आत्मनिर्भरता का प्रतीक हैं। इन पारंपरिक प्रसादों को विशेष रूप से घर पर ही तैयार किया जाता है, जो इस पर्व की महत्ता को और भी बढ़ाता है। प्रसाद में सुथनी जैसे फल और सब्जियों का प्रयोग यह भी सिखाता है कि हम अपने भोजन में प्रकृति के उपहारों का आदर करें और सादगी को अपनाएँ।

भारत- तिब्बत सम्बन्ध

भारत ने हमेशा से वसुधैव कुटुम्बकम की निति का पालन करते हुए सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार माना है | भारत हमेशा से विश्व में शांतिदूत की भूमिका निभाता रहा है जिसका प्रमाण हमें इतिहास से लेकर वर्तमान तक मिलता है | भारतीय विदेश निति ने निर्मातो इस बात का विशेष ध्यान रखा तथा साथ ही साथ पड़ोसी देशो के साथ मधुर सम्बन्ध बनाये रखने की पंचशील की निति पालन किया | भारत की विदेश नीति में पड़ोसी देशों से संबंध प्राथमिकता में शामिल हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर प्रथम पड़ोस नीति के तहत अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, नेपाल, मालदीव, म्यांमार, पाकिस्तान, श्रीलंका के साथ हमारे संबंधो की सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी है | इन देशो में पाकिस्तान के अपवाद को छोड़कर अन्य के साथ भारत निकटता से काम कर रहा है | पाकिस्तान के साथ सम्बन्ध पूर्व विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला का कहना है कि भारत- पाकिस्तान के साथ अच्छे सम्बन्ध की इच्छा रखता है लेकिन यह की सुरक्षा की कीमत पर नहीं हो सकती है | चीन के साथ सम्बन्धो को लेकर पूर्व विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला ने स्पष्ट कर दिया कि सीमावर्ती क्षेत्रों में शांति एवं स्थिरता हमारे सम्बन्धो के विकास के लिए जरुरी है |

तिब्बत सदियों से प्राचीन संस्कृति और आध्यात्मिकता का एक जीवित केंद्र रहा है जो अध्यात्मिक संपदा और दर्शन के मामले में दुनियां को बहुत योगदान दिया है | चूंकि भारतीय उपमहाद्वीप के कुछ हिस्सों पर आक्रमण किया जा रहा था और बर्बर हमलावरों द्वारा हिंदू सभ्यता को मिटा दिया गया था, कई साधकों, गुरुओं और आध्यात्मिक गुरुओं ने तिब्बत की सुरक्षा और एकांत में शरण ली, जिससे हिंदू और बौद्ध विचार और साहित्य को जीवित और फलने-फूलने का मौका मिला। इस प्रकार, तिब्बत भारतीयों के लिए अत्यधिक महत्व रखता है क्योंकि यह लचीलापन और अस्तित्व को दर्शाता है।

भारत- तिब्बत सम्बन्ध बहुत प्राचीन है इसे हम ऐतिहासिक परिपेक्ष में देख सकते है | महाभारत और कालिदास के रघुवंश महाकाव्य में तिब्बत का उल्लेख त्रिविष्टप नाम से मिलता है, लेकिन इसके साथ भारत का संपर्क वस्तुतः बौध्द धर्म के माध्यम से ही हुआ | भारत प्राचीन काल से अपनी संस्कृति, धर्म, शाशन संचालन प्रक्रिया और शिक्षा के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त कर चुका था | प्राचीन भारत में नालंदा और विक्रमशिला दो विश्व प्रसिध्द विश्वविद्यालय थे जहाँ विश्व के विभिन्न भागो से विद्वान और छात्र आते थे | तिब्बती विद्वान तारानाथ ने इसका विस्तृत वर्णन किया है | यहाँ के शिक्षक और विद्वान तिब्बत में इतने प्रसिध्द थे की कहा जाता है एक बार तिब्बत के राजा ने इस विश्वविद्यालय के प्रधान की तिब्बत में आमंत्रित करने के लिए दूत भेजे थे ताकि स्वदेशी ज्ञान और जन- सामान्य की संस्कृति में रूचि जगाई जा सके | बिहार में एक अन्य प्रसिध्द विश्वविद्यालय था- ओदंतपुरी | पालवंश के राजाओं के संरक्षण में इसकी प्रतिष्टा बढ़ी | इस विश्वविद्यालय से बहुत सरे बौध्द भिक्षु तिब्बत में जाकर बस गये थे |

शुरुआत में भारत- तिब्बत सम्बन्ध का उल्लेख बौध्द साहित्य से मिलता है जिसमे भारत के विश्वविद्यालयो और उनके विद्वानों का अहम योगदान रहा | नालंदा विश्वविद्यालय के आचार्य कमलशील को तिब्बत के राजा ने निमंत्रित किया था | उनकी मृत्यु के बाद उनके शरीर पर विशेष लेप लगाकर उसे ल्हासा के विहार में सुरक्षित रखा गया था | ज्ञानभद्र, एक अन्य प्रकांड विद्वान थे जो अपने दोनों बेटों के साथ धर्मं प्रचार के लिए तिब्बत गये | बिहार के ओदन्तपुरी विश्वविद्यालय के समान तिब्बत में एक नये बौध्द बिहार की स्थापना की गई है | आचार्य अतीश विक्रमशिला विश्वविद्यालय के प्रधान थे जिन्हें दीपंकर श्रीज्ञान के नाम से भी जाना जाता था | वे ग्यारहवीं शताब्दी में तिब्बत गये और वहां बौध्द धर्मं की सशक्त नींव डाली | थोनामी संभोता एक तिब्बती मंत्री था जो चीनी यात्री ह्वेनसांग के नालंदा आगमन के समय नालंदा विश्वविद्यालय का छात्र था | यहाँ से अध्ययन के बाद वह तिब्बत लौटा और वहां उसने बौध्द धर्म का प्रचार- प्रसार किया | तिब्बतियों की बड़ी संख्या ने बौध्द धर्म को स्वीकार किया यहाँ तक कि तिब्बत का राजा भी बौध्द बन गया था | उसने बौध्द धर्म को राजधर्म घोषित किया था | तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रसार तिब्बती राजा, सोंगत्सेन गम्पो और ठिसोंग-देत्सेन के प्रयासों से हुआ तथा उनके नाम तिब्बती इतिहास के सुनहरे पन्नों में दर्ज हो गए हैं।

जब भारत ब्रिटेन के अधीन था उस समय ब्रिटिश सरकार ने तिब्बत के साथ अपने सम्बन्ध स्थापित करने की ओर अग्रसर हुई | जुलाई १९०४ में एक युवा ब्रिटिश कर्नल फ्रांसिस युनुगसबैंड ने ल्हासा के पवित्र शहर में प्रवेश किया और तिब्बतियों पर शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य के साथ अपना पहला समझौता किया | क्राउन प्रतिनिधि के साथ इस संधि पर हस्ताक्षर करके, तिब्बत को लन्दन द्वारा एक अलग राष्ट्र के रूप में स्वीकार किया गया था| मार्च १९१४ में, चीन के प्रति निष्पक्षता दिखाए के लिए लन्दन ने इस मुद्दे को निपटाने के लिए शिमला में एक त्रिपक्षीय सम्मलेन का आह्वान किया; इस सम्मलेन में पहली तीन मुख्य नायक वार्ता के लिए एक साथ एक मंच पर आये | इस मीटिंग का परिणाम पूरी तरह से संतोषजनक नहीं था क्योकि चीनियों ने केवल मुख्य दस्तावेज़ को प्रारंभ किया और इसकी पुष्टि नहीं की | ब्रिटिश और तिब्बती हालांकि एक आम सीमा पर सहमत हुए जिसे उन्होंने मानचित्र पर सीमांकित किया जिसे मैकमोहन रेखा के नाम से जाना जाता है | यह संधि तब भी लागु थी जब भारत अगस्त १९४७ में स्वतंत्र हुआ था | स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार का तिब्बती सरकार के विदेश कार्यालय से शिमला कन्वेंशन की पुष्टि करने का अनुरोध किया | भरत सरकार के इस औपचारिक अनुरोध को तिब्बत के विदेश कार्यालय स्वीकार कर लिया जो तिब्बत की स्वतंत्र स्थिति का सबसे अच्छा प्रमाण है |

When India became independent of the British in 1947, the Government of India sent the following note recognizing the Tibetan government: “The Government of India would be glad to have an assurance that it is the intention of the Tibetan government to continue relations on the existing basis until new arrangements are reached that either party may wish to take up. This is the procedure adopted by all other countries with which India has inherited treaty relations from His Majesty’s Government”.

 

अक्टूबर 1950 में, एक घटना ने हिमालयी क्षेत्र के साथ-साथ भारत और चीन के संबंधों के भाग्य को बदल दिया: माओ की सेना ने पूर्वी तिब्बत में मार्च किया। चीन ने इस इलाके पर अपना झंडा लहराने के लिए हज़ारों की संख्या में सैनिक भेज दिए. तिब्बत के कुछ इलाकों को स्वायत्तशासी क्षेत्र में बदल दिया गया और बाक़ी इलाकों को इससे लगने वाले चीनी प्रांतों में मिला दिया गया. लेकिन साल 1959 में चीन के ख़िलाफ़ हुए एक नाकाम विद्रोह के बाद 14वें दलाई लामा को तिब्बत छोड़कर भारत में शरण लेनी पड़ी जहां उन्होंने निर्वासित सरकार का गठन किया. साठ और सत्तर के दशक में चीन की सांस्कृतिक क्रांति के दौरान तिब्बत के ज़्यादातर बौद्ध विहारों को नष्ट कर दिया गया. माना जाता है कि दमन और सैनिक शासन के दौरान हज़ारों तिब्बतियों की जाने गई थीं.

 

The Chinese again invaded Tibet in 1949. India’s foreign office responded to the violation (of 821-treaty) on October 26, 1950 as: “In the context of world events, invasion by Chinese troops of Tibet cannot but be regarded as deplorable and in the considered judgment of the Government of India, not in the interest of China or peace”

तिब्बत पर कब्ज़ा करने के बाद चीन ने उसे बाहरी दुनिया से एकदम अलग-थलग कर दिया तथा तिब्बत में चीनी सेना तैनात कर दिया और राजनितिक शासन में अपना दखल बढ़ा दिया जिसकी वजह से तिब्बत के नेता दलाई लामा को भागकर भारत में शरण लेनी पड़ी | फिर तिब्बत का चीनीकरण शुरू हुआ और तिब्बत की भाषा, संस्कृति, धर्म और परम्परा सबको निशाना बनाया गया. किसी बाहरी व्यक्ति को तिब्बत और उसकी राजधानी ल्हासा जाने की अनुमति नहीं थी, इसीलिये उसे प्रतिबन्धित शहर कहा जाता है. विदेशी लोगों के तिब्बत आने पर ये पाबंदी 1963 में लगाई गई थी. हालांकि 1971 में तिब्बत के दरवाज़े विदेशी लोगों के लिए खोल दिए गए थे.

तिब्बत और भारत- चीन सम्बन्ध

1959 में तिब्बत में ल्हासा विद्रोह ने चीनी राज्य द्वारा बड़े पैमाने पर दमन को आमंत्रित किया जिसमें तिब्बत के राजनीतिक-आध्यात्मिक नेता दलाई लामा ने हजारों शरणार्थियों के साथ सीमा पार की और भारत में हिमाचल प्रदेश में बस गए। भारत धार्मिक और ऐतिहासिक कारणों से तिब्बती बौद्ध अल्पसंख्यकों के प्रति सहानुभूति रखता था। औपनिवेशिक वर्षों के दौरान, तिब्बत चीन का अभिन्न अंग नहीं था और ब्रिटिशों ने इसे यात्रा और व्यापार के अधिकार के साथ औपनिवेशिक भारत और चीन के बीच एक बफर राज्य के रूप में बनाए रखा। इसलिए, भारत ने तिब्बत पर ऐतिहासिक अधिकार का दावा किया जिसे चीन ने अस्वीकार कर दिया। 1950 के दशक के उत्तरार्ध में चल रहा तनाव 1962 में भारत-चीन युद्ध के रूप में समाप्त हुआ, जिसकी स्मृति आज भी भारत की विदेश नीति के निर्माताओं पर भारी पड़ती है। भारत ने इसे अपने प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा दिए गए भरोसे, समर्थन और दोस्ती के विश्वासघात के रूप में लिया। एक आदर्शवादी के रूप में, नेहरू ने तिब्बत पर भारत के दावे को इस उम्मीद के साथ त्याग दिया था कि एशिया के दो धुरी (चीन और भारत) की एकता से एशिया में स्थिरता और समृद्धि आएगी। 1962 के चीन के साथ युद्ध में भारत की पराजय ने भारतीय राज्य की कमजोरी को उजागर कर दिया। फलते-फूलते व्यापार और आर्थिक संबंधों के बावजूद चीन तब से भारत के प्रति शत्रुतापूर्ण देश बना हुआ है।

तिब्बत पर भारत की नीति

1947 से लेकर वर्तमान समय तक भारत की तिब्बत-विषयक नीति को निम्नलिखित विभिन्न चरणों में समझा जा सकता है –

1947-51 तक: विश्व के अधिकांश देश तिब्बत पर चीन के संभावित आक्रमण का विरोध कर रहे थे और भारत भी इसके विरुद्ध था. भारत ने बीजिंग पर दबाव डाला कि वह तिब्बत में सेना न भेजे.

1954-50 तक: भारत ने तिब्बत को पर्याप्त स्वायत्तता प्रदान करने और तिब्बत में अपनी सैन्य उपस्थिति को कम करने के लिए बीजिंग को सहमत करने का प्रयास किया.

1962-77 तक: भारत-चीन युद्ध के दौरान भारत ने तिब्बती विरोध का समर्थन किया और तिब्बत में उपस्थित चीन पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव बढ़ाया. भारत ने 1963 में तिब्बत के लिए नए संविधान की घोषणा करने से दलाई लामा को नहीं रोका.

1986-1999 तक: 1988 में भारत ने चीन के क्षेत्र के भाग के रूप में तिब्बती स्वायत्त क्षेत्र को मान्यता प्रदान की और दोहराया कि वह तिब्बतियों को भारत में चीनी विरोधी राजनितिक गतिविधियों में शामिल होने की अनुमति प्रदान नहीं करता है.

वर्ष 2003 में : भारतीय प्रधानमन्त्री चीन की यात्रा पर गये और वहाँ यह वक्तव्य दे डाला कि 1950 में चीन ने तिब्बत पर हमला नहीं किया था. भारत का यह कथन सत्य के विपरीत था क्योंकि आक्रमण के बाद ही दलाई लामा को तिब्बत से पलायन करना पड़ा था. मैकमोहन लाइन के विषय में भारत की नीति तथा अरुणाचल प्रदेश में चीन के द्वारा कब्ज़ा किये गये भूभाग के बारे में भारत के दृष्टिकोण को देखते हुए यह कथन अनुचित था. तत्कालीन भारतीय नेतृत्व ने यह तथ्य भुला दिया था कि तिब्बत ने 1914 के शिमला समझौते में स्वतंत्र रूप से भाग लिया था. इन सबके बावजूद चीन भारत के प्रति कभी उदार नहीं हुआ है और वह आज भी सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश को दक्षिण तिब्बत का एक भाग मानता है.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तिब्बत पालिसी

जैसा की भारत की नीति रही है पड़ोसी देशो के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाये रखने की | उसी निति का अनुसरण करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2014 में अपने शपथ ग्रहण समारोह में निर्वासित सरकार सिक्योंग के पीएम लोबसोंग सांगे को आमंत्रित किया।

2016 में भारत सरकार ने दुनिया भर के उइगर मुस्लिम और तिब्बती नेताओं के साथ चीनी असंतुष्टों के एक सम्मेलन की अनुमति दी। (लेकिन अंतिम समय में उनके वीजा रद्द कर दिए गए थे) |

२०१८ में दलाई लामा की भारत में शरणार्थी के रूप में आने के 60वें वर्ष को चिह्नित करके कार्यक्रमों की योजना बनाई गई थी। (ध्यान दें: अधिकारियों को इसमें भाग लेने की अनुमति नहीं थी और दलाई लामा की राजघाट की एक योजनाबद्ध यात्रा रद्द कर दी गई थी।)

2020 में भाजपा नेता राम माधव सार्वजनिक रूप से तिब्बती विशेष सीमा बल के एक सैनिक के अंतिम संस्कार में शामिल हुए। (नोट: बाद में उन्होंने अंतिम संस्कार के बारे में अपना ट्वीट हटा दिया) |

२०२१ में भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दलाई लामा को पहली सार्वजनिक उनके जन्मदिन पर बधाई दिये | अपने ट्विटर संदेश में मोदी ने लिखा, ‘परम पावन दलाई लामा को 86वें जन्मदिन पर बधाई देने के लिए फ़ोन पर बात की. हम उनके लंबे और स्वस्थ जीवन की कामना करते हैं.’ यह पहली बार था, जब प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से दलाई लामा को उनके जन्मदिन पर बधाई दे रहे थे (नोट: विदेश मंत्रालय ने इस सप्ताह स्पष्ट किया कि दलाई लामा एक सम्मानित धार्मिक हैं और पीएम उनसे सम्मानित अतिथि के रूप में व्यवहार करने की भारत की निरंतर नीति का हिस्सा थे।)

 

 

ये न्यू इंडिया है

“The only thing necessary for the triumph of the evil is for the good men to do nothing.”

प्रसिद्ध दार्शनिक एडमुं बुर्क का यह कथन इस बात की ओर इशारा करता है की विध्वंसकारी शक्तियां तभी विजय प्राप्त करती हैं जब अच्छी सोच रखने वाले लोग कुछ नहीं करते या क्षणिक लाभों के चलते एक साथ नहीं आ पाते. और आज के समय में भी हम कहीं न कहीं ऐसा होते हुए देख रहे हैं, जब जलवायु परिवर्तन, आपदा प्रबंधन, महामारी, भू राजनीतिक संघर्ष जैसे वैश्विक समस्याओं पर पूरा विश्व आ बंटा हुआ सा नज़र आता है. मेरा मानना तो यह है की ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर तो  सभी देशों की सोच एक जैसी न सही तो कम से कम एक दिशा में तो होनी ही चाहिए. परन्तु हमारे समय में विश्व स्तर पर जिस तरह से नेतृत्व की आपदा देखने को मिल रही है, वो गंभीर चिंताओं की ओर इशारा करती है.

परन्तु इन सब के बीच जो निश्चिंत करने की बात है वो यह है की दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश भारत ने इस आपदा में भी अवसर खोजते हुए पूरे विश्व को एक नया रास्ता दिखने की उम्दा कोशिश की है. चाहे पूरे विश्व में वैक्सीन और आवश्यक दवाएं प्रदान करना हो या रूस यूक्रेन संघर्ष को समाप्त करने के लिए उचित कदम उठाना हो भारत ने अपने आप ही वैशिविक कल्याण के लिए अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाया है.वैसे भारत के लिए विश्व को मार्गदर्शित करना कोई नया नहीं है, और इसी लिए हमे विश्व गुरु कहा गया है, क्योंकि देता न दशमलव भारत तो यों चाँद पे जाना मुश्किल था…

UN द्वारा निर्धारित किये गए सभी 17 SDG यानि सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स को लेकर भारत पूरी गंभीरता और तत्परता से कार्य कर रहा है. भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र भाई मोदी के नेतृत्व में भारत आज विकास की नई ऊँचाइयों को छु रहा है. और मोदी जी के इस विकास के मॉडल की सबसे बड़ी विशेषता यह है की यह मॉडल ‘3 इ’ पर केन्द्रित मॉडल है यानि इकॉनमी, इकोलॉजी और equity. अर्थात हम अपने विकास को उस बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था में फ्रेम करते हैं जो पर्यावरण को कम से कम नुकसान पंहुचाए और जिसमे सभी की भागीदारी यानि equity हो. और इसी लिए हम अगर मोदी सरकार के बजट में यदि कैपिटल स्पेंडिंग को साढ़े चार लाख करोड़ तक लेके जाने का लक्ष्य निर्धारित करते हैं, तो वहीँ दूसरी ओर pvtg यानि particularly vulnerableट्राइबल ग्रुप्स के लिए १५००० करोड़ रूपए का आवंटन भी करते हैं ताकि उनको बेहतर शिक्षा, स्वस्थ्य एवं रोज़गार के अवसर मिल सकें.

Governance on the पीपल से अब हम governance फॉर the पीपल यानि (प्रो पीपल) और governance विथ the पीपल यानि जनभागीदारी की तरफ बढ़ रहे है. और इसमें हमे देश के सभी नागरिकों, विशेष रूप से युवाओं का भरपूर सहयोग मिल रहा है. वैसे तो इसके बेहिसाब उद्धरण है परन्तु इसका सबसे  बड़ा उदाहरण हमे प्रधानमंत्री जी के स्वच्छ भारत अभियान में देखने को मिला. यह सरकार द्वारा जनता के लिए ली गई कोई योजना मात्र नहीं थी. मोदीजी के आह्वाहन पर देश के सभी नागरिक अपने अपने स्तर पर इसमें अपनी सहभागिता देने लगे. सोशल मडिया पर ऐसे कई पोस्ट हैं जिसमे टीम बना कर के स्कूल कॉलेज के छात्र, प्राइवेट कंपनियों में कार्यरत तमाम कर्मचारी आदि हफ्ते के एक दिन  जा कर किसी समुद्र तट, किसी तालाब किसी कॉलोनी को जा कर साफ़ करने लगे. और इसकी वजह से कई तालाबों का कई पोखरों का पुनर्जन्म जैसा हो गया.

आप सभी यह जान कर अत्यंत खुशी होगी कि अभी हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत का लिंगानुपात तेज से बेहतर हो रहा है।  (2017-19 में 904 से 2018-20 में 907)।  और यह हुआ है जनभागीदारी और युवा भागीदारी से।  आपको याद होगा जैसे ही मोदीजी पीएम बने उनका ध्यान हमारे देश में तेजी से गिरे हुए चाइल्ड लिंगानुपात पर गया।  और इसी को सुधारने के लिए उन्हें बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, सेल्फी विद बेटी जैसे कार्यक्रम चलाए जिस समाज में एक संदेश गया की बेटियां कोई बोझ नहीं है, बच्ची एक वरदान है।  मोदीजी ने समाज के विभिन वर्गों से आने वाली महिलों को, चाहे वो किसी भी क्षेत्र में कार्यरत हों, उनको प्रोत्साहन दिया है, फिर चाहे वो सानिया मिर्जा, साइना नेहवाल, या मीराबाई चानू हों, जिन्होने अपने खेल से शुद्ध विश्व में भारत का नाम  रौशन किया है, फिर 125 वर्ष आदिवासी पर्यावरण कार्यकर्ता श्रीमती तुलसी गौड़ा जिन्को पद्म श्री से सम्मान किया गया. यह मोदी जी की महिला सम्मान और महिला उत्थान की नीति है की नागालैंड को उसकी पहली महिला संसद बीजेपी की एस फांगनोन कोन्याक के रूप में प्राप्त हुई.

भारत में जिस तरह से युवा आज स्टार्टअप खोलने की दिशा में बढ़ रहे हैं, वो हमारे युवाओं के आत्मविश्वास और उनकी दूरदर्शिता को दर्शाता है. लगभग हर महीने हम एक स्टार्टअप को यूनिकॉर्न बनते देख रहे है, जो की हमारी तरुणाई के प्रयासों का ही परिणाम है. और यह स्टार्टअप केवल अतिविकसित तकनीकों पर ही नहीं, बल्कि खेती किसानी, पर्यावरण, भू जल संरक्षण, और शिक्षा के शेत्र में भी अपना लोहा मनवा रहे है. इससे हम ease ऑफ़ डूइंग बिज़नस को ease ऑफ़ लिविंग से जोड़ प् रहे है ताकि हमारे देश के नागरिकों के जीवन में आमूलचूल परिवर्तन आ सके.

जिस तरह से स्वामी विवेकानंद ने अमरीका के धर्म संसद में दिए गए अपने एक भाषण ने भारत के प्रति पूरे विश्व की सोच को बदल कर रख दिया, उसी तरह से भारत भी आज अपनी नीतियों, अपने नैतिकता और अपने नवाचारों के दम पर आज भारत जी २० की अध्यक्षता करने हुए पूरे विश्व को एक नए मार्ग की तरफ ले जा सकता है. और यह मार्ग शांति, सद्भावना और समावेशी समृद्धि का मार्ग है. ऐसा माना जाता है की विचार अमर होते है. और मैं चाहता हूँ की हमारे प्राचीन ग्रंथो से उत्पन्न हुए भारत के इन विचारों का पुरे विश्व को लाभ मिले, ठीक उसी तरह से जिस तरह से हमारे यहाँ निर्मित वैक्सीन ने पूरे विश्व का कल्याण किया. आइये सब किल कर सहयोग करें इस विश्व को हमारे बच्चों के लिए एक नई दुनिया बनाने के लिए. सर्वे भवन्तु सुखिनः. जय हिन्द.

रवीश जी! विक्टिम कार्ड मत खेलिए

पत्रकार रविश कुमार जी ने ndtv से त्याग पत्र दे दिया है. वैसे तो इस अप्रासंगिक घटना को लेकर अपने विचार लिखना कोई बहुत ज़रूरी नहीं था. पर मेरा मन यह देख कर विचलित हो गया की कैसे एक पत्रकार के एक न्यूज़ चैनल से इस्तीफ़ा देने को देश के कुछ मीडिया घरानों द्वारा में ‘स्वतंत्र पत्रकारिता का निधन’, ‘प्रेस की आज़ादी के ताबूत पर आखिरी कील गड़ने’ जैसी मन को झकझोर देने वाली हेडलाइंस के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है. रविश जी एक सीनियर पत्रकार हैं और मोदी सरकार, भाजपा एवं संघ के घोर आलोचक भी हैं. ऐसा होना कोई समस्या नहीं है. पर दूसरों को दिन रात गाली देते हुए स्वयं को न्याय, सत्यता और निष्पक्षता की गंगोत्री बताना उनके खुद के खुद को सर्टिफिकेट दिए जाने के नाटक को बेनकाब करता है. एक समय रवीश जी ट्विटर पर काफ़ी सक्रिय रहते थे,अगर उनसे कोई सवाल करें तो सिर्फ़ संघी-सांप्रदायिक कह कर ब्लॉक कर देते थे,मतलब जो उनकी भाषा ना बोले या उनके विचार से मेल ना खाता हो उसका कोई मतलब नहीं,मुझे भी साल २०१३ में एक सवाल पूछने पर ब्लॉक कर दिया,फ्रीडम ऑफ स्पीच के चैम्पियन सिर्फ़ एकतरफ़ा संवाद में यक़ीन रखते है,लेकिन ये ब्रह्मा जी से लेकर हर किसी से सवाल पूछेंगे।


राजनीति शास्त्र की शिक्षा में सबसे पहले यह पढाया जाता है की ‘गैर राजनीतिक या फिर apolitical या न्यूट्रल जैसा कुछ भी नहीं होता है. सबकी अपनी एक विचारधारा होती है और होनी भी चाहिए. आखिर इसी विचारधारा के चश्मे से ही तो हमे दुनिया को देखने और समझने का एक नजरिया मिलता है. रविश जी की भी एक विचारधारा तो है. ऐसे में जब आप बड़े ही शातिर ढंग से संघ/भाजपा/हिंदुत्व की अपनी विचारधारा को परोसते हुए खुद को निष्पक्ष दिखने की जो असफल कोशिश करते हैं, वो कई लोगो को समझ नहीं आती है. और मेरे जैसे कई लोगों को समझ आती है, इसी लिए हम लोग समय समय पर आपको और आपके दोगलेपन, आपकी हिप्पोक्रेसी को एक्स्पोसे करते रहते हैं. इसकी नतीजा यह होता है की आपके तथाकथित बुद्धिजीवी गुट के लोग हमने ‘ट्रोल’ बुला कर हमारे तार्किक प्रश्नों और मतों को भी कोरी बकवास करार देते हैं.
आप भाजपा और पी एम मोदी पर हमेशा से प्रोपगंडा करने का आरोप लगाते हुए खुद को उसका मासूम शिकार दिखाने की कोशिश करते हैं. परन्तु जब आपका ख़ुद का एजेंडा ही भाजपा विरोधी प्रोपगंडा हो तो ऐसे में इसका विरोध करने वाले तो आपको ‘गोदी मीडिया’ वाले लगेंगे ही. जबकि रवीश कुमार ने ख़ुद कितना फ़ेक न्यूज़ फैलाया,मैं तथ्य के साथ लिख रहा हूँ,निम्नलिखित ट्विटर लिंक्स में आप देख सकते है उन्होंगे किस तरीक़े से मोदी सरकार के विरोध में ग़लत आँकड़े तक दिखा दिये,वहीं हिंदू विरोधी-संघ विरोधी अपने विचार को फ़ेक न्यूज़ के माध्यम से फैलाया है –

 

राजनीतिक शास्त्र के जानकारों के अनुसार वामपंथी विचारधारा एक प्रतिक्रियावादी विचारधरा है जिसका अपना कोई अस्तित्व नहीं होता है और जो पूंजीवाद की आलोचना और उसकी प्रतिक्रिया से जन्म लेती है. ठीक वैसा ही बीते कुछ कुछ सालो में आपके साथ हो गया है. आपकी हर बात हर जवाब मोदीजी के ऊपर तंज कसने और उनकी आलोचना करने से ही शुरू और वहीँ से ही ख़तम होता है. यहाँ तक की आपने अपने ndtv छोड़ने की घोषणा करने के लिए जारी किये गए विडियो में भी मोदी जी ऊपर तंज़ कसने की आपकी स्वाभाविक आदत को नहीं छोड़ा. आपने उनसे अपनी तुलना करते हुए कहा की मैं कोई ऐसा आदमी तो हूँ नहीं जो प्लेन से उतर के भी कहे की मैं गरीब रहा हूँ. बस यहीं आपकी कुंठा हिलोरे मारते हुए बाहर आती है. रविश जी, जो व्यक्ति आज प्लेन से उतरते हुए अपना गरीबी में बीता हुआ बचपन याद कर रहा है, वो प्लेन में किसी गरीब के पैसे मार कर या पैसे लूट कर नहीं बैठ रहा है. उसको इस देश के गरीबों, किसानों , दलितों आदि ने अपना आदमी मानते हुए इतना सशक्त बनाया है की आज वो प्लेन में बैठ पा रहा है. ये प्लेन में बैठना उसको विरासत में नहीं मिला है. उसने अपने जीवन के कई दशक बेहद कठिन संघर्ष कर के बिताए हैं जिसकी वजह से उसको ये सब प्राप्त हुआ है. आपको कभी उनसे दिक्कत नहीं हुई जो अपने पर दादा, अपनी दादी अपने पिता के कार्यों के नाम पर अपने आप को pm की गद्दी का नैसर्गिक उत्तराधिकारी मानते हैं. खैर उनसे आपको क्यों ही दिक्कत होगी. आखिर उनकी ही सरकार में तो आपके मित्र और ndtv के संस्थापक श्री प्रनोय रॉय जी को ये विशेषाधिकार मिला था की उनके चैनल की 25वीं वर्षगांठ को मानाने के लिए आपको राष्ट्रपति भवन जैसा असाधारण वेन्यू दिया गया,क्या ये नैतिकता थी ? आज दावे कह साथ कह सकता हूँ जिस पत्रकार या न्यूज़ स्टूडियो को आप गोदी मीडिया कहते है उनकी हिम्मत है की वो राष्ट्रपति भवन या किसी सरकारी संस्था को बपौती समझे? आप तब भी चुप थे जब आपके न्यूज़ चैनल में ही आपकी सहकर्मी जब केंद्र में यूपीए की सरकार थी तब कौन मिनिस्टर होगा वो डिसाइड करती थी?याद है न “राडिया टेप” तब भी आप चुप थे ? क्यूँ ? तब आपका अंतरात्मा नींद में सो रहा था?
जब भाजपा द्वारा वरिष्ठ पत्रकार एम जे अकबर को मंत्री बनाया गया तो आपने नैतिकता की दुहाई देते हुए एक लम्बा चौड़ा ‘खुला ख़त’ यानि ओपन लैटर उनके नाम लिखते हुए अपनी पीड़ा व्यक्त की कि किस तरह से मीडिया जगत के लोगों को सरकार और पार्टियों से दूर रहना चाहिए. लेकिन जब काग्रेस से जाने माने पत्रकार कुमार केतकर जी को राज्य सभा भेजा तब आपका खुला पत्र जनता के सामने खुला ही नहीं. ऐसा क्यों? क्या मीडिया जगत का भाजपा के बारे में कुछ अच्छा लिखना ही गोदी पत्रकारिता है? विपक्षी पार्टियों के समर्थक पत्रकार जो करते हैं, वो आप देखना नहीं चाहते हैं क्युकी फिर आपकी ‘पत्रकारिता जगत का मसीहा’ वाली छवि धूमिल हो जाएगी. कहने को बहुत कुछ है. एक बात और समझ में नहीं आई कि दशकों तक अड़ानी के ऋण से वेतन उठाने के बाद आज त्यागपत्र दे रहे हैं,फिर ये विक्टिम कार्ड क्यूँ खेल रहे है,ये दिन आना था,ये होना था वो होना था ….. रवीश आप क्यूँ चुप रहे जब अंबानी ने एनडीटीवी को बिना ब्याज के 400 अरब रुपये का ऋण दिया, जिसे नेटवर्क ने कभी वापस भुगतान करने का इरादा नहीं किया।

अडानी ने NDTV को कानूनी रूप से खरीदा और इसलिए लोग इसे अदालत में चुनौती नहीं दे सकते।

अपने आप को मूर्ख बनाना बंद करो और विक्टिम कार्ड खेलना बंद करो । लेकिन जाने दीजिये. आपको आपकी नई यात्रा के लिए बधाई व शुभकामनाएँ !

वक्त है क्रिकेट में कुछ कुछ बड़ा ‘खेल’ करने का!

अभी हाल ही में जिस तरह से पुरुषों की भारतीय क्रिकेट टीम का ऑस्ट्रेलिया में टी २० विश्व कप २०२२ प्रदर्शन रहा, निश्चित तौर पर उसने मेरे जैसे सभी क्रिकेट प्रमियों को अत्यंत निराश और हतोत्साहित कर दिया है. भारतीय टीम से इतनी तो आशा थी की एक से एक दिग्गज खिलाडियों से भरी हुई टीम कम से कम विश्व कप के फाइनल में तो पंहुचेगी ही. लेकिन इसके विपरीत भारतीय टीम का प्रदर्शन किसी भी मैच संतोषजनक तक नहीं रहा,मतलब कागज पर ही दिग्गज टीम थी।पूरी टीम हर मोर्चे पर लगभग संघर्ष करती हुई नज़र आई और इससे अधिक निराशा की क्या बात होगी की टीम को फाइनल में पंहुचने के लिए ११ खिलाड़ीयों में मात्र तीन-चार खिलाड़ीयों के कारण ही सेमीफाइनल तक पहुँच पाए. हम सोशल मीडिया पर इस बार की कितनी भी ख़ुशी मना लें या कितना भी ट्रोलिंग कर लें की विश्व कप के फाइनल मुकाबले में पाकिस्तान को इंग्लैंड ने हरा कर वर्ल्ड कप जीत लिया लेकिन हम इस तथ्य से मुंह नहीं मोड़ सकते की हम खुद तो फाइनल तक भी पंहुच नहीं पाए. क्योंकि हमारी ओपनिंग बुरी तरह से फ्लॉप,गेंदबाज़ी एकदम औसत दर्ज़े से भी कम.भारतीय टीम के इस ख़राब प्रदर्शन के बाद कई वाजिब सवाल खेल प्रेमियों एवं खेल के जानकारों के द्वारा अब उठाए जा रहे हैं और मेरे हिसाब से उठाए भी जाने चाहिए. क्यूँ नहीं उठाई जानी चाहिए १ अरब ४० करोड़ के देश में १५० की रफ़्तार से गेंदबाज़ी करने वाला कोई गेंदबाज़ नहीं या टैलेंट हंट किया नहीं जाता. जबकि सुविधा देने के मामले में क्रिकेट सबसे ऊपर है।

जिस देश में क्रिकेट को एक धर्म की संज्ञा दी जाती है और जहाँ क्रिकेट खिलाडियों को भगवान की तरह पूजा जाता है अगर उस देश के खिलाड़ी लगातार ख़राब खेल का प्रदर्शन करेंगे,या फिर अधिकतर समय अपनी फिटनेस को लेकर परेशान रहेंगे तो क्या यह सन्देश नहीं जाएगा की टीम में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. ऐसा क्यों है की जो खिलाड़ी फिट नही और और अच्छा नहीं खेल रहे वो सब आईपीएल में एकदम भले चंगे और शानदार प्रदर्शन करने वाले बन जाते हैं? वो देश से जायदा अपने फ्रेंचाइजी मालिकों के लिए जायदा उपलब्ध रहते है। जब वर्ल्ड कप था तो बूमराह को नहीं चाहिए था की वो आईपीएल से ब्रेक लेकर वर्ल्ड कप के लिए फिट रहता लेकिन क्या हुआ हम सब जानते है,क्या उनके लिए अपने देश का प्रतिनिधित्व करती हुई टीम में खेलना एक पूर्णतः व्यावसायिक उद्देश्य से आयोजित किये जाने वाली लीग के लिए खेलने से कम महत्वपूर्ण है? आईपीएल को दोष क्यूँ ना दिया जाए भारत ने धोनी के नेतृत्व में २००७ में टी-२० का वर्ल्ड कप जीता था,उसके बाद २००८ से आईपीएल शुरू हुआ क्या हुआ उसके बाद हम लोग ने एक भी वर्ल्ड कप नहीं जीत पाए,क्योंकि हमारी प्राथमिकता कुछ और हो गई ।

मैं उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता हूँ जिसने अपने बचपन में छोटे शहरों में रहते हुए कई बार रेडियो में तो कई बार पूरे मोहल्ले के एकलौते कलर टीवी, केबल और इन्वर्टर का कनेक्शन रखने वाले घर में जा कर घंटों मैच का न आनंद लिया है , बल्कि कई मैच को जिया तक है. हमने क्रिकेट को अपनी रगों में बहते हुए देखा है. हमने गांगुली, सचिन, द्रविड़, कुंबले और लक्षमण जैसे खिलाडियों को कहलते हुआ अपने बचपन से लेकर जवानी की यात्रा पूरी की है. ऐसे खिलाडियों को हम महज़ इस लिए नहीं पूजते और और सम्मान करते थे क्योंकि इनका प्रदर्शन बहुत अच्छा होता था. हमारे बड़े और अभिभावक भी हमको इनके आचरण, इनके व्यव्हार, इनकी गंभीरता और इनके परिश्रम की वजह से हमको इनके जैसा बनने के लिए प्रेरित किया करते थे. क्या आज के खिलाडियों के लिए ऐसा कह पाना संभव है? मुझे इस बात पर गंभीर संशय है.उसके बाद धोनी का कूल एप्रोच देखा है जिसके नेतृत्व में भारत ने तीन आईसीसी ट्रॉफी जीती। मै कोई क्रिकेट एक्सपर्ट नहीं बस एक क्रिकेट प्रेमी हूँ जो अपनी टीम को हारते देख दुःखी होता हूँ,जब भी हारों एक ही बात कही जाती है क्रिकेट है हार-जीत लगी रहती है,लेकिन हर बात नॉक आउट मुक़ाबले में हारना तक ठीक है लेकिन बुरी तरीक़े से हारना कहाँ तक जायज़ है,एक आगे से आकर हथियार डाल देना । फाइनल में पाकिस्तान की भी हार हुई लेकिन वो लड़ें अंतिम गेंद तक लड़ें। उस स्थिति में कहा जाएगा हार-जात खेल का हिस्सा है। पिछली साल वर्ल्ड कप में ऐसे ही पाकिस्तान के हाथों करारी शिकस्त वो अभीतक क्रिकेट प्रेमी भूलें नहीं थे की अब इंग्लैंड के हाथों भारी करारी शिकस्त । आख़िर क्यूँ? कुछ क्रिकेटर ऐसे है जो कमजोर टीम के आगे मानों विवियन रिचर्ड्स-तेंदुलकर बन जाते है जी हाँ! मैं केएल राहुल के बारे में बोल रहा हूँ कब उस बंदे ने कोई बड़ा मैच भारत को जिताया है? मुझे तो याद नहीं ! और सबसे दिलचस्प बात अगर आप किसी खिलाड़ी कि आलोचना करो तो उनकी PR टीम अलग-अलग हैंडल से फैन बनकर आपको गाली देना शुरू कर देंगे ये एक नई चीज़ शुरू हुई है,हर खिलाड़ी कोई न कोई PR एजेंसी रखें हुए है जो आलोचना होने पर उनकी साइबर आर्मी आपको गाली-गलौज करेगी। जब २००७ का वर्ल्ड कप था तो उस समय के सीनियर खिलाड़ी तेंदुलकर-द्रविड़-लक्ष्मण-गांगुली ने ख़ुद को अलग कर लिया था और नई ऊर्जा वाले खिलाड़ियों को मौक़ा दिया गया था उसका नतीजा क्या हुआ था हम सब जानते है। हमने जीता और डंके के चोट पर जीता । क्या उस स्थिति में रोहित-अश्विन-कार्तिक-भुवी-शम्मी को भी अलग हो जाना चाहिए था और नई ऊर्जा वाले बच्चों को मौक़ा देना चाहिए था,लेकिन भारत में खिलाड़ी निर्णय लेते है वो खेलेंगे बल्कि ये निर्णय बीसीसीआई और उनकी सेलेक्शन टीम को लेनी चाहिए । देश के वो खिलाड़ी जो अन्य खेलों के माध्यम से देश का प्रतिनिधित्व करते हैं, अक्सर यह शिकायत करते हैं की उनको उस तरह का सम्मान, प्रेम, धन, समर्थन और यहाँ तक की प्रोत्साहन तक नहीं मिलता जो क्रिकेट खिलाडियों को इस देश की जनता एवं सरकार द्वारा दिया जात है. लेकीन फिर भी वो लोग सीमित संसाधनों के बावजूद अपने स्तर पर देश का नाम रौशन करने का पूरा प्रयास कर रहे हैं. क्या भारतीय क्रिकेट टीम ‘अत्यधिक संसाधनों के श्राप’ जिसे हम रिसोर्स कर्स भी कहते हैं, उससे जूझ रही है? इसके बारे में क्रिकेट बोर्ड को जल्द ही सोचना पड़ेगा.

कठोर निर्णय लेने का समय आ गया है,क्योंकि किसी खिलाड़ी से ऊपर देश का आन-बान-शान है। हमें प्रोफेशनल अप्रोच दिखाना होगा। क्वालिटी और क्वांटिटी में फ़र्क़ करना होगा।

अँधेरे में रौशनी की कुछ किरणें

हालाँकि इन सब आलोचनों के बीच कुछ अच्छी खबरें भी है. इनमे से सबसे ऊपर है विराट कोहली का अपनी वास्तविक क्षमताओं को प्राप्त करना और एक महान खिलाड़ी की तरह गंभीर संकट और असहनीय दबाव के समय में भी अपनी एकाग्रता को बरक़रार रखते हुए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना, जो की उन्होंने 53 गेंदों में ८२ रन की नाबाद पारी खेल कर के सबके सामने प्रस्तुत किया. ज्ञात रही की इस विश्व कप में सबसे ज्यादा रन बनाने वाले बल्लेबाजों में भारत के विराट कोहली टॉप पर रहे। उन्होंने छह मैचों में 98.66 की औसत और 136.40 के स्ट्राइक रेट से 296 रन बनाए। इसमें चार अर्धशतक शामिल है। वहीँ दूसरी ओर सूर्यकुमार यादव के रूप में भारत को एक शानदार खिलाड़ी मिल गया है जिससे आने वाले समय में भारत को बहुत अपेक्षाएं रहने वाली हैं. लेकिन भारतीय क्रिकेट बोर्ड को भी यह ध्यान देना पड़ेगा की सूर्य कुमार जैसे कुछ अन्य सूर्य भी भारतीय टीम में शामिल किये जाएं ताकि इस लगातार मिल रही हार रूप अंधकार से छुटकारा पाया जा सके. अभी बोर्ड के पास समय है की वो आपने वाले बड़े मुकाबलों के पहले टीम में आमूलचूल परिवर्तन कर के उसे ‘विजयी भव” का आशीर्वाद दे! अपनी इच्छा तो यही है हर जगह तिरंगा सबसे ऊपर हो।

पंचायत – एक वेब सीरीज जो गांव के सादगी से जीवन के पर्याय को गढ़ती है।

OTT प्लेटफॉर्म में आने वाली अनेकों वेब सीरीज की बाड़ के बीच में एमेजॉन प्राइम द्वारा लाया गया पंचायत सीजन 2 किसी शांति और भावना के द्वीप की तरह है। अश्लीलता, गाली गलौज,हिंसा से लबरेज़ वेब सीरीज के दौर में यूपी के पूर्वी भाग को साधारण ग्रामीण परिवेश को दिखाती पंचायत के दोनों भाग ने सिद्ध किया है की जबरदस्त कंटेंट,बेहतरीन अभिनय, बढ़िया पृष्टभूमि किसी एक ख़ास ग्रूप का जागीर नहीं है। भारत की आत्मा गाँवों मे बसती है और सही मायने में पंचायत आपको उसकी सैर करवाती है! हंसाते गुदगुदाते कहानी आपको आखिरी एपिसोड में आपके गले रुँध भी करती है।

काफ़ी समय से मैं इसकी प्रतीक्षा कर रहा था और सबसे अच्छी बात यह रही की मेरी प्रतीक्षा को इस सीरियल ने बिलकुल भी व्यर्थ नहीं जाने दिया। आम तौर पर देखा जाता है कि किसी वेब सीरीज के दूसरे सीजन में पहले जैसा आनंद नही रहता है। लेकिन जितनी सराहना इसके पहले सीजन की हुई थी, दूसरे सीजन को भी जनता का इतना ही प्यार मिल रहा है। यह कार्यक्रम मुझे व्यक्तिगत रूप से इस लिए भाया क्योंकि इसको देख कर लगा जैसे ये मेरी और मेरे जैसे करोड़ों पूर्वांचलियों की कहानी है जो भले ही आज अपने ग्राम, कस्बे, शहर से अलग कहीं रह रहे हों, लेकिन ये गांव और कस्बा उनसे अलग नही रह पाया है और आज भी उनके अंदर मौजूद है। फुलेरा गांव के वासी, उसकी मासूमियत, उनकी नोक झोंक, खट्टे मीठे अनुभव सब कुछ देख कर लगता है जैसे ये हमारे अपने गांव की बात हो रही है। OTT प्लेटफॉर्म के आ जाने से पंचायत और गुल्लक जैसे  कार्यक्रम आज हमारे बीच आ पा रहे हैं जो छोटे शहर और मध्यम वर्ग के लोगों, उनकी परेशानियों, उनकी खुशियों, उनकी अपेक्षाओं और उनके सपनों को वेब दुनिया में एक नया स्थान  दे रहे हैं। इस वेब सिरीज़ में एक डायलॉग बहुत सटीक है जिस गांव के लोगों को शहर वाले 2 कौड़ी का गांव वाला लोगों को गंवार समझते हैं।

सबसे ज्यादा गांव के लड़के ही सेना में जाते है देश की सीमाओं पर शहीद होते हैं ऐसी बात अक्सर कहा जाता है। फ़िल्म का कंटेंट लिखने वाले- निर्देशक और अभिनय करने वाले ने बखूबी गाँव-क़स्बे और छोटे शहर के बारीकियों को ध्यान में रखा है जैसे हर गाँव में किसी एक विशेष ब्यक्ति होता है तब उनका नामकरण भी किया जाता है कैसे भूषण किरदार का नाम “बनराकस” था वैसे ही सचिव जी में सहायक का एक डायलॉग जो ख़ासकर
पूर्वी यू॰पी॰ से लेकर बिहार में बोलते है “हुमच के एक थप्पड़ मारना चाहिए था” ये कंटेंट वही लिख सकता है जिसने बारीकियों से शोध किया हो इस जगह का उस परिवेश का । जैसे रिंकी का जन्मदिन मनाना उसका चित्रण ठीक वैसा ही किया गया है जैसा गाँव-देहात में किया मनाया जाता है।

प्रथम सीज़न में परमेश्वर किरदार की बेटी की शादी थी उस शादी कार्यक्रम का चित्रण भी वैसे ही किया गया है,जैसे शहरों में तो शादियों की व्यवस्था का इंतजाम पूरा केटरिंग वाले के जिम्मे होता है, लेकिन गांव इत्यादि में आज भी शादी में पूरे मोहल्ले को जिम्मेदारी निभानी पड़ती है, इसका सुंदर और प्यारा सा चित्रण पंचायत में किया है, जो आपको हंसाता भी है और अपने गांव की ऐसी ही शादी की याद दिलाते हुए आपकी पलकों पर नमी भी छोड़ जाता है। ऐसा ही अत्यंत मार्मिक चित्रण उस सीन में देखने को मिलता है है जब सरहद की सुरक्षा में लगा हुआ सैनिक वीरगति को प्राप्त कर के ताबूत में अपने गांव वापस आता है। उस समय हर गांव वासी के हृदय में उमड़ती हुई पीड़ा को किस तरह से दिखाया गया है, उसके लिए निर्माता और निर्देशक दोनो की प्रशंसा की जानी चाहिए। ऐसी उम्मीद करता हूं की इस तरह की मानवीय संवेदनाओं और सांस्कृतिक मूल्यों को सबके सामने एक कहानी के रूप में लाने वाली अन्य वेब सीरीज भी लाई जाएंगी। गाली, अश्लीलता, फूहड़ता, धर्म और संस्कृति का उपहास उड़ाने से अच्छी वेब सीरीज बनती है, इस बात को पंचायत और गुल्लक जैसे कार्यक्रम गलत साबित कर रहे हैं। पंचायत जैसी वेब सिरीज़ बनाने वालों को धन्यवाद कम से कम एक ऐसी वेब सिरीज़ है पंचायत जिसे परिवार सहित देख सकते हैं।

Its Time for the Bollywood to Reassess

Social media these days is flooded with memes and short videos (also known as reels) of Allu Arjun starer Telugu movie Pushpa. The song ‘Teri Nazar..’ has been watched more than 160 million times and the movie’s Hindi dubbing itself has survived more than 50 days in the cinema halls and earned more than 250 crores. This success has emerged at a time when even grand Bollywood movies like Ranbeer Singh starer 83 and Salman Khan Starrer Antim etc. have been finding it extremely difficult to even survive on the box office, forget about becoming a blockbuster. The success of the South Indian movie Pushpa is not an exception. In fact, for the last couple of years, regional cinema, especially south Indian movies like KGF, Bahubali, kabali etc. have become much more popular than their Bollywood counterparts. So much so that the established Bollywood actors are themselves pondering for the reason. Bollywood over a period of time has become extremely repetitive, monolithic and filled up with movies copied either from Korea, the USA or Indian regional cinema (Spl. Telugu movies). Very conveniently, these copies are eulogised as “Indian remake”.
Bollywood movies, for the last couple of decades, have become out of sync with the thought process and mindset of the Indian masses, resulting in South Indian movies gaining prominence among the movie lovers of India. One of the reasons behind this epic fall has been the dominant narrative allegedly propagated by the Bollywood movies, which, severe film critiques argue, reflects their biases against the Hindu religion. In movies after movies, a Hindu Bania is always reflected as a fraud, who charges exorbitant interest from the poor and uses muscle power to settle the scores. Pandit/Pujari is made to look like a potential rapist and a conman. Temples are projected as safe havens for all anti-social activities. On the other hand, a religious leader of a minority community is pictured as a true patriot, an honest, upright person whose source of all this honesty and uprightness is his religion.
Interestingly, South Indian movies narrate well about the ancient culture of India, as well as about the social realities and problems, without exaggerating it. Historically, temples have been the centre of village economy too, apart from being that of spirituality. This fact is very well projected by the South Indian movies, while in the Bollywood movies, temples are used by actors for fliting or by the villain for some notorious activity. This is somewhat parallel to the history of North and South India. While North India’s history is marked with Delhi Sultanate and Mughals, South India feels proud about dynasties that have created magnificent physical and administrative structures like the Cholas, Cheras, Pandyas, Chalukyas, Hoysala and of course, the Vijaynagara kingdom.
Not every movie is bad in Bollywood. There are some movies that gained fame and money through the topic of nationalism like Uri, holiday, baby, Shehenshah, Tanha Ji, Kesari etc. to name a few. Bollywood needs to come up with more originality, creativity, innovation and respect for nationalism, freedom struggle and the ancient culture of India. Shunning the decade-old leftist ideological framework of story projection is the first step it needs to take. Merely having a big star in the movie is no more a guarantee for success. A good story, powerful acting and a convincing narrative are a must now. Bollywood can continue to ignore this at its own peril.